How to Build a Career in the Indian Politics
कैसे खेला जाता है चुनावी मुद्दों का वो खेल जिसे आप नहीं जानते
तो
एकबार फिर से स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर जहाँ हम रिसर्च के आधार पर वर्तमान
राजनीति पर चर्चा करते हैं और समझने का प्रयास करते हैं कि राजनीति के इस बदलते
स्वरुप में हमारी कार्यशैली कैसी होनी चाहिए ताकि राजनीति में हमें भी वो सम्मान,
वो ग्रोथ मिल सके. दोस्तों आज की चर्चा थोड़ी अलग है और अलग इसलिए है क्यूंकि आज
जिस विषय पर हमलोग बात करने जा रहे हैं, इस विषय पर हमलोग बात तो करते हैं पर कभी
इसकी गहराई में नहीं जाते, कभी यह समझने का प्रयास नहीं करते कि क्या यह विषय उतना
ही आसान है जितना हमें लगता है या फिर कुछ ऐसा है जिसे हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं|
दोस्तों यह विषय है चुनावी राजनीति में उठाये जानेवाले मुद्दे पर यहाँ एक सवाल है
आपसे कि राजनीति में कौन से मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होने चाहिए, वे मुद्दे जिनसे
आम आदमी अपने रोज़मर्रा के जीवन में प्रभावित होता है या फिर वे मुद्दे जो सिर्फ
हमारे दिमाग को प्रभावित करते हैं पर उनका हमारे जीवन से कोई खास लेना देना नहीं
होता, आप कहेंगे कि बेशक जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दे ही ज्यादा महत्वपूर्ण
होने चाहिए पर क्या राजनीति में ऐसा होता है? क्या राजनीति में शिक्षा-स्वास्थ्य
जैसे जरुरी मुद्दों को कभी महत्व मिल पाता है?
क्या
आपको अपने राज्य में या किसी भी और राज्य में चुनाव के वक्त उठाये जानेवाले
मुद्दों को देखकर आश्चर्य नहीं होता? क्या आप सोचने पर मजबूर नहीं होते कि अपने
मनिफेस्टों में शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर बात करने वाले राजनीतिक दलों को
चुनाव के समय ऐसा क्या हो जाता है कि वे इन जरुरी मुद्दों को छोड़कर जाति-धर्म और
मंदिर-मस्जिद पर आकर खड़े हो जाते हैं, कई लोग इसका जवाब देते हुए ये कहते हैं कि
राजनीतिक दलों को ये पता होता है कि लोगों को जोड़ने के लिए इससे बेहतर कोई मुद्दा
नहीं हो सकता क्यूंकि ये मुद्दे भावनात्मक होते हैं पर क्या वोटों का गणित सिर्फ
इतना ही है? क्या सिर्फ यही एक वजह है जिसके कारण जाति-धर्म के मुद्दे सुर पकड़ने
लगते हैं, नहीं – बिलकुल भी नहीं क्यूंकि इसके पीछे एक पूरा समीकरण काम करता है और
हम इस समीकरण से हमेशा अंजान बने रहते हैं और इस ब्लॉग को आपके बीच लाने का मकसद
सिर्फ इतना है कि राजनीतिक मुद्दों के पीछे का वो सच आप भी जान सके - समझ सकें और
इसका अनुभव कर सकें कि राजनीति का अंकगणित कैसे सबसे अलग - सबसे जुदा होता है, तो
आइए मिलकर समझते हैं पर्दे के पीछे की इस पूरी कहानी को विस्तार से
How To Pursue a Successful Career in Politics
दोस्तों, भारतीय राजनीति अधिकांश समयों में पर्सनालिटी पॉलिटिक्स के आसपास घुमती रही है, इसीलिए ये जरुरी हो जाता है कि मुद्दों को भी पर्सनालिटी पॉलिटिक्स के आसपास ही रखा जाए, ऐसा नहीं है कि पर्सनालिटी पॉलिटिक्स भारतीय राजनीति में आज आई है, इसका असर आप इंदिरा गाँधी के समय से देख सकते हैं, उस वक्त यह तय होता था कि चुनाव चाहे राज्य का हो या केंद्र का पर चेहरा हमेशा इंदिरा गाँधी का ही होगा और इसे ही कहते हैं पर्सनालिटी पॉलिटिक्स, दोस्तों इस तरह की राजनीति की समस्या यह होती है कि यहाँ मुद्दे वही चुने जाते हैं जो उस व्यक्तित्व को सूट करते हों जिसके चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ा जाना होता है और इस तरह से राजनीतिक दलों के सामने भी यह बाध्यता हो जाती है कि वे ऐसे ही मुद्दे उठायें जो कि उनके लीडर के व्यक्तित्व को सूट करता हो क्यूंकि इससे न सिर्फ जनता का आकर्षण उस लीडर के तरफ बढ़ता है बल्कि राजनीतिक दलों के फेवर में भी ये मुद्दे हॉटकेक की तरह काम करने लगते हैं, अब जाहिर सी बात है कि जब पर्सनालिटी पॉलिटिक्स को भुनाने की बात आएगी तो मुद्दे विचारधाराओं के आसपास घुमने लगेंगे न कि जनता के समस्याओं के आसपास
और
मुद्दों की इस केस स्टडी पर हम अध्ययन इसलिए कर रहे हैं ताकि राजनीतिक मुद्दों पर
हमारी परिपक्वता बढ़ सके और जब बात इस विषय की आये कि हमें अपनी राजनीतिक पहचान
बनाने के लिए कैसे मुद्दे उठाने चाहिए तो इसे समझने में हमें तकलीफ न हो, इसलिए
आपसे आग्रह है कि राजनीतिक मुद्दों के इन सारे पहलुओं को बड़े ही ध्यान से समझना
ताकि मुद्दों को लेकर आपकी सोच स्पष्ट हो सके, अब बात अगले पहलु की और अगला पहलु
है, रिकॉल वैल्यू मतलब
लोगों के दिमाग में जिसकी छवि सबसे ज्यादा मजबूत हो, उदाहरण के लिए अगर नूडल्स का
नाम लिया जाए तो आपके दिमाग में सबसे पहला नाम क्या आता है? निश्चित तौर पर “मैग्गी”
का नाम ही आता होगा, इसे ही कहते हैं रिकॉल वैल्यू और ऐसा देखा गया है लोगों की
रिकॉल वैल्यू आर्थिक मामलों से ज्यादा सामाजिक मामलों में होती है जैसे जाति-धर्म
के मामले, पर इसके उलट आर्थिक मामलों में रिकॉल वैल्यू तभी बनती है जब जनता को
सीधा फायदा मिल रहा हो जैसे फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री मोबाइल यह सब और राजनीतिक
पार्टियाँ भी ये बखूबी समझती हैं इसलिए जब भी उन्हें जाति-धर्म जैसे सामाजिक
मामलों से अलग कोई आर्थिक मामला उठाना होता है तो वे फ्री की चीजों पर बात करते
हैं
The New Media's Role in Politics
तो ये था चुनावी मुद्दों का पूरा खेल पर इसका मतलब ये कतई नहीं है कि देश में हमेशा यही जाति-धर्म के मुद्दे चलते रहेंगे क्यूंकि राजनीति में होनेवाले तीन बड़े बदलावों की झलक हमें अभी से मिलनी शुरू हो गयी है, पहला है, तेजी से बढ़ता हुआ स्मार्टफोन मतलब अब मीडिया की जगह सोशल मीडिया ले रही है और जब सोशल मीडिया लोगों की आवाज़ बनेगी तो आर्थिक मुद्दे भी उठने शुरू होंगे और इसकी एक झलक कोरोना के दौरान पुरे देश में देखी भी गयी, अब बात दुसरे बदलाव की- भारत की युवा आबादी 70 प्रतिशत है और ये आबादी जैसे-जैसे पॉलिटिकली मैच्योर होगी वैसे-वैसे इन्हें ये सारा राजनीतिक समीकरण भी समझ में आएगा और 5 जी के दौर में मैच्योर हुई इस युवा आबादी को भ्रमित करना नेताओं के लिए इतना आसान नहीं होगा. अब बात तीसरे और सबसे बड़े बदलाव की जो एक सवाल के रूप में आपलोगों के लिए छोड़ता हूँ कि यदि जाति और धर्म का महत्व राजनीति में इतना ही ज्यादा है तो बहन मायावती का ग्राफ लगातार क्यूँ गिर रहा है और ओवैसी क्यूँ नहीं ज्यादा सफल हो पा रहे हैं, कमेंट में जवाब जरुर दें और आपके जवाबों के बाद अगले किसी ब्लॉग में राजनीति में आ रहे जाति-धर्म के समीकरण में इस तीसरे बदलाव पर भी विस्तार से चर्चा होगी क्यूंकि यह तीसरा बदलाव काफी दिलचस्प भी है और काफी महत्वपूर्ण भी
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